वार्षिक कार्यक्रम
संगठन द्वारा वर्ष पर्यन्त चलाये जाने वाले कार्यक्रम
1. नव सम्वत्सर पर विविध कार्यक्रमों का आयोजन।
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को प्रारम्भ होता है हिंदू नववर्ष :
भारतीय नववर्ष हमारी संस्कृति व सभ्यता का स्वर्णिम दिन है। यह दिन भारतीय गरिमा में निहित अध्यात्म व विज्ञान पर गर्व करने का अवसर है। जिस भारत भूमि पर हमारा जन्म हुआ, जहां हम रहते हैं, जिससे हम जुड़े हैं उसके प्रति हमारे अंदर अपनत्व व गर्व का भाव होना ही चाहिए। भारतीय नववर्ष, इसे नव संवत्सर भी कह सकते हैं। इसी दिन ब्रह्मा जी ने सृष्टि का निर्माण किया था और सभी देवताओं ने सृष्टि के संचालन का दायित्व संभाला था। यह भारतीय या हिंदू रीति से नववर्ष का शुभारंभ है। यह उत्सव चैत्र शुक्ल प्रथमा को मनाया जाता है।
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा का ऐतिहासिक महत्व :
ऐसा माना जाता है कि इसी दिन के सूर्योदय से ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना प्रारंभ की। सम्राट विक्रमादित्य ने इसी दिन अपना राज्य स्थापित किया। इन्हीं के नाम पर विक्रमी संवत् का पहला दिन प्रारंभ होता है। हम सबके आदर्श एवं प्रभु श्री राम के राज्याभिषेक का दिन भी यही है। शक्ति की आराधना माँ दुर्गा की उपासना में नवरात्रों का प्रारंभ हमारे भारतीय नववर्ष यानी वर्ष प्रतिपदा से होता है। सिखों के द्वितीय गुरु श्री अंगद देव जी का जन्म दिवस भी आज के दिन ही होता है। स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने इसी दिन आर्य समाज की स्थापना की एवं कृणवंतो विश्वमआर्यम का संदेश दिया। सिंध प्रान्त के प्रसिद्ध समाज रक्षक वरूणावतार भगवान झूलेलाल इसी दिन प्रगट हुए। राजा विक्रमादित्य की भांति शालिवाहन ने हूणों को परास्त कर दक्षिण भारत में श्रेष्ठतम राज्य स्थापित करने हेतु यही दिन चुना था। युधिष्ठिर का राज्यभिषेक भी इसी दिन हुआ। संघ संस्थापक प.पू. डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार का जन्मदिन भी आज के पावन दिन ही होता है। महर्षि गौतम जयंती का दिन भी विक्रमी संवत का प्रथम दिन होता है। इसके साथ-साथ वसंत ऋतु का आरंभ वर्ष प्रतिपदा से ही होता है जो उल्लास, उमंग, खुशी तथा चारों तरफ पुष्पों की सुगंधि से भरी होती है। फसल पकने का प्रारंभ यानि किसान की मेहनत का फल मिलने का भी यही समय होता है। इसी समय में नक्षत्र शुभ स्थिति में होते हैं अर्थात् किसी भी कार्य को प्रारंभ करने के लिये यह शुभ मुहूर्त होता है।
भारतीय नववर्ष कैसे मनाएँ :
इस दिन हम परस्पर एक दूसरे को नववर्ष की शुभकामनाएँ दें। पत्रक बांटें, झंडे, बैनर आदि लगावें। अपने परिचित मित्रों, रिश्तेदारों को नववर्ष के शुभ संदेश भेजें। इस मांगलिक अवसर पर अपने-अपने घरों पर भगवा पताका फहराएँ। अपने घरों के द्वार, आम के पत्तों की वंदनवार से सजाएँ। घरों एवं धार्मिक स्थलों की सफाई कर रंगोली तथा फूलों से सजाएँ। इस अवसर पर होने वाले धार्मिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लें अथवा कार्यक्रमों का आयोजन करें। प्रतिष्ठानों की सज्जा एवं प्रतियोगिता करें। झंडी और फरियों से सज्जा करें। वाहन रैली, कलश यात्रा, विशाल शोभा यात्राएं कवि सम्मेलन, भजन संध्या, महाआरती आदि का आयोजन करें। चिकित्सालय, गौशाला में सेवा, रक्तदान जैसे कार्यक्रम कर इस दिन के महत्व को व्यापकता के साथ समाज में लेकर जाएं।
2. सामाजिक समरसता दिवस का आयोजन।
सामाजिक समरसता का क्या अर्थ है?
सामाजिक समरसता शब्द का अर्थ है समाज के सभी वर्ग सभी जाति सभी धर्म के लोग एक साथ एक रस के समान हो जाएं और बिना किसी भेदभाव के आपस में मिलजुल कर रहें । दुसरे शब्दों में सामाजिक समरसता का अर्थ है सामाजिक समानता, अर्थात जातिगत भेदभाव एवं अस्पृश्यता का जड़मूल से उन्मूल कर लोगों में परस्पर प्रेम एवं सौहार्द बढ़ाना तथा समाज के सभी वर्गो एवं वर्णो के मध्य एकता स्थापित करना। समरसता का अर्थ है सभी को अपने समान समझना।
सामाजिक समरसता दिवस कब मनाया जाता है ?
संगठन के द्वारा राजस्थान में प्रत्येक उपशाखा स्तर पर , जिला स्तर पर या कभी -कभी 2-3 उपशाखाएँ मिलकर प्रतिवर्ष 14 अप्रैल को डॉ भीमराव अंबेडकर जयंती के अवसर पर जिले भर में सामाजिक समरसता दिवस मनाया जाता है | इस दिन विचार गोष्ठियों का आयोजन कर डॉ भीमराव अंबेडकर के जीवन पर प्रकाश डाला जाता है ।
समरसता के सूत्र…
जातिगत भेदभाव के कारण ही समाज में समरसता का अभाव हुआ और दूरियां बढ़ती गई। समाज में हम छोटी से छोटी जरूरत के लिए परस्पर निर्भर हैं, फिर भी समाज इस भेदभाव को त्यागता नहीं है। समाज के सर्वांगीण उत्थान हेतु सभी वर्ग के लोगों का योगदान आवश्यक है। श्रीराम इस पूरक भाव को जानते हैं, इसीलिए केवट, भील, कोल, किरात, शबरी, वानर आदि से भेंट प्रसंग में उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति के जीवन और उसके कर्म के प्रति सम्मान का आदर्श प्रस्तुत किया है। भक्त चाहे जिस जाति, कुल, गोत्र, वंश का हो, वह श्रीकृष्ण को स्वीकार्य है- ‘जाति-पांति कोउ पूछत नाही श्रीपति के दरबार।’ सूरदास ने सामाजिक समरसता तथा अपने उपास्य श्रीकृष्ण के समदर्शी स्वभाव का भी वर्णन किया है-
बैठक सभा सबै हरिजू की कौन बड़ो को छोट।
सूरदास पारस के परसे मिटत लोह के खोट।।
सूर के काव्यलोक में जाति-पांति, ऊंच-नीच, स्त्री-पुरुष में भेदभाव की भावना नहीं है। सुदामा-कृष्ण पुनर्मिलन समरसता का एक अन्य उत्कृष्ट प्रसंग है।
समाधान के सूत्र –
वर्तमान में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सामाजिक समरसता का मूर्तरूप है। संघ में जाति किसी भी स्वयंसेवक की योग्यता एवं दायित्व का निर्धारण नहीं करती। सभी स्वयंसेवकों का आचरण, व्यवहार, मानसिकता एवं क्रियाकलाप समरसता से ओतप्रोत है। संघ के द्वितीय सरसंघचालक गुरुजी ने कहा है, ‘‘हिंदू समाज के सभी घटकों में परस्पर समानता की भावना के विद्यमान रहने पर ही उनमें समरसता पनप सकती है।’’ भारतीय संस्कृति में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ एवं ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ की मान्यता निहित है। यदि प्रत्येक भारतीय को यह आभास हो जाए व आत्मावलोकन कर अपनी शक्ति को पहचाने तो भारत फिर से उसी सर्वोच्च सिंहासन पर आसीन होगा, जहां वह पहले कभी था। स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि हर व्यक्ति स्वयं पूर्ण है तथा उसे अपने बंधुओं के ऊपर शारीरिक, मानसिक अथवा नैतिक किसी भी प्रकार का शासन चलाने की आवश्यकता नहीं। खुद से निचले स्तर का कोई मनुष्य नहीं है, इस मान्यता को जब वह धारण कर लेता है, तभी वह समानता की भाषा का उच्चारण कर सकता है। जब समानता का भाव स्थापित होगा तभी मनुष्य-मनुष्य के बीच की दूरी कम होगी। परस्पर प्रेम एवं सहयोग की भावना बढ़ेगी और सहयोग से समृद्धि प्राप्त होगी।
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना।
जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना।।
यह जोड़ने की शक्ति, यह संधिनी प्रज्ञा ही सुमति है। इसके जागृत होने से भारत वर्ष फिर से विश्वगुरु होगा। द्वेष और विषमता के मिट जाने पर ही आपसी प्रेम, सहयोग एवं साहचर्य बढ़ेगा, समृद्धि होगी और जयशंकर प्रसाद रचित ‘कामायनी’ के शब्दों में सर्वत्र अखंड आनंद की वर्षा होगी।
3. वैचारिक सुदृढ़ता एवं कार्यकर्ता निर्माण हेतु अभ्यास वर्गों का आयोजन।
आत्मविश्वास से आती है दृढ़ता : यदि आपके भीतर वैचारिक आत्म विश्वास है तभी आपके व्यवहार में दृढ़ता आ पायेगी जो सकारात्मक परिणाम देगी। आपको नकारात्मक रवैये से बचना होगा। आप ऐसे विचारों को प्रतिस्थापित करें कि गलत या गलती होने पर भी शर्मिन्दगी न उठानी पड़े ।
अभ्यास वर्ग का अर्थ कार्यक्रम और कार्यक्रम के माध्यम से व्यक्ति निर्माण प्रमुख उद्देश्य होता है : किसी भी संगठन को परिस्कृत करने के लिए अभ्यास वर्ग संजीवनी का काम करते हैं। अभ्यास वर्ग का उद्देश्य अनुशासित, कर्मठ, संस्कारवान, कर्तव्यनिष्ठ वैचारिक रूप से सुदृढ़ कार्यकर्ता तैयार करना होता है। नवीन कार्यकर्ताओं को संगठन की नीति-रीत व उद्देश्यों की समझ भी इनसे पैदा होती है। अभ्यास वर्ग में अलग-अलग सत्रों में शाखा में चलने वाले नित्य नियमित कार्यक्रमों के विषय में बताया जाता है। इस दौरान उन्हें शारीरिक, बौद्धिक विषयों का अभ्यास भी कराया जाता है। अभ्यास वर्ग में निश्चित समय से निश्चित स्थान पर बुलाना और खेल नियुद्ध आसन, व्यायाम, गीत, सुभाषित बोधकथा और चर्चा के माध्यम से व्यक्ति का व्यक्तित्व निर्माण धीरे-धीरे करना मतलब होता है। अभ्यास वर्ग का अर्थ कार्यक्रम और कार्यक्रम के माध्यम से व्यक्ति निर्माण प्रमुख उद्देश्य होता है । इस हेतु उपशाखा, जिला एवं प्रदेश स्तर प्र वर्ष में अक बार बार अभ्यास वर्ग आयोजित किये जाने के प्रावधान है।
4. प्रदेश महासमिति अधिवेशन।
चुनाव विज्ञप्ति :-
संगठन के विधान की धारा 28 (क) के अनुसरण में प्रत्येक सत्र् के लिए प्रदेश कार्यकारिणी के निर्वाचन के लिए संगठन मंत्री / निर्वाचन अधिकारी द्वारा चुनाव विज्ञप्ति प्रसारित की जाती है।
प्रदेश कार्यकारिणी के लिए निम्न पदों के लिए निर्वाचन होता है :-
(1) सभाध्यक्ष-1 (2) उपसभाध्यक्ष-2 (3) अध्यक्ष-1 (4) वरिष्ठ उपाध्यक्ष-1 (5) उपाध्यक्ष-विभाग द्वारा गठित प्रत्येक संभाग अनुसार-1 कुल 10 (6) उपाध्यक्ष-4 ( प्राथमिक, माध्यमिक, संस्कृत व महिला क्षेत्र से प्रत्येक से-1-1) (7) महामंत्री-1 (8) अतिरिक्त महामंत्री-1 (9) मंत्री-2 (पुरूष व महिला) (10) सचिव-4 (प्राथमिक, माध्यमिक, संस्कृत व महिला क्षेत्र से प्रत्येक से-1-1) (11) कोषा ध्यक्ष-1 तथा सदस्य- (12) अध्यापक-1 (13) पंचायत समिति शिक्षक-1 (14) वरिष्ठ अध्यापक-1 (15) प्राध्यापक-1 (16) प्रधानाचार्य सदस्य-1) (17) शारीरिक शिक्षक-1 (18) प्रयोगशाला सहायक सदस्य-1 (19) महिला शिक्षक सदस्य-1 (20) संस्कृत शिक्षा सदस्य-1 (21) पुस्तकालयाध्यक्ष प्रतिनिधि -1 (22) प्रबोधक -1 (23) कंप्यूटर शिक्षक प्रतिनिधि-1 (24) पंचायत शिक्षक प्रतिनिधि-1 (25) सेवानिवृत्त शिक्षक-1
उपशाखा चुनाव के समय प्रत्येक 100 की सद्स्य संख्या पर 1 महासमिति समिति सदस्य का चुनाव किया जाता है। जो प्रदेश कार्यकारिणी के निर्वाचन के समय चुनाव में भाग लेते है ।
5. प्रदेश, जिला व उपशाखा कार्यकारिणी की नियमित बैठकें।
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6. सदस्यता कार्यक्रम।
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7. स्नेह मिलन व विचार गोष्ठियाँ।
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8. सामाजिक सरोकार के कार्य,रक्तदान, वृक्षारोपण, पर्यावरण एवं जनचेतना आदि ।
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9. उपशाखा, जिला शाखा निर्वाचन।
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10. उपशाखा/ जिला/ प्रदेश शैक्षिक सम्मेलन।
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11. शैक्षिक समस्याओं के समाधान हेतु आवश्यक कार्यक्रम।
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12. व्यवसायिक दक्षता उन्नयन कार्यक्रम।
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13. कर्तव्यबोध पखवाड़े का आयोजन।
राजस्थान शिक्षक संघ (राष्ट्रीय) शिक्षकों का सशक्त शैक्षिक संगठन है, जो प्रतिवर्ष कर्तव्य बोध पखवाड़ा स्वामी विवेकानन्द जयंती (१२जनवरी) से लेकर नेताजी सुभाष चंद्र बोस जयंती (२३ जनवरी) तक आयोजित करता है। इसमें शिक्षकों की गोष्ठी आयोजित की जाती है।
कर्तव्य बोध ही जीवन की धुरी है. वह हमारी मनुष्यता को प्रकट करके हमें सही अर्थों में मनुष्य बनने की राह पर ले जाता है. जिस परिवार, जिस समाज और जिस देश में जितनी संख्या में ऐसे कर्तव्यबोध से भरे हुए मनुष्य होते हैं, वह स्वयं, परिवार, शिक्षार्थी, शिक्षक, वह समाज और वह देश उतनी मात्रा में बलवान, सम्पन्न और सुदृढ़ होता है।
शिक्षक अपने कर्तव्यबोध एवं गुरुधर्म का पालन करें। देश के सभी कर्मचारी संवर्ग में शिक्षक के प्रति समाज की निगाहें आशा एवं अपेक्षापूर्ण हैं। देश का शिक्षक अपने कर्तव्य के प्रति समर्पण की भावना से कार्य करेगा तो उसका प्रभाव उसके शिष्यों पर अवश्य पड़ेगा। हम विद्यार्थियों को ऐसा वातावरण प्रदान करते है जिससे विद्यार्थी अपनी प्रतिभा-क्षमता निखारकर समाज के लिए श्रेष्ठ नागरिक बने। कर्तव्यों के निर्वहन से ही सकारात्मक समाज और भावी पीढ़ी को आदर्श व्यस्था प्रदान की जा सकती है।
कर्तव्यबोध की भावना एक दूसरे को समझने में मदद करती है । समर्पण भाव से ही शिक्षक कर्तव्यों का पालन करते है । कार्यपद्धति में सकारात्मक सोच और कर्तव्यों के पालन के साथ ही शिक्षक पीढ़ियां तराशने का कार्य कर सकता है। कर्त्तव्य बोध की भावना व्यक्ति-परिवार-समाज- सभी में जागृति होगी तो देश महान बनेगा। शिक्षक का दायित्व है कि वो सोए हुए समाज को लगातार जगाए रखे। सरकार को भी शिक्षा से जुड़े कार्यों के निर्वहन की ओर ही ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। समस्याओं का स्थाई समाधान चाहिए तो देश की शिक्षा में संस्कार, चरित्र निर्माण, नैतिकता, सामाजिक समरसता, राष्ट्रीयता, मानवता को सम्मिलित करना होगा।
शिक्षक अपने कर्तव्यबोध एवं गुरुधर्म का पालन करें। देश के सभी कर्मचारी संवर्ग में शिक्षक के प्रति समाज की निगाहें आशा एवं अपेक्षापूर्ण हैं। देश का शिक्षक अपने कर्तव्य के प्रति समर्पण की भावना से कार्य करेगा तो उसका प्रभाव उसके शिष्यों पर अवश्य पड़ेगा। हम विद्यार्थियों को ऐसा वातावरण प्रदान करते है जिससे विद्यार्थी अपनी प्रतिभा-क्षमता निखारकर समाज के लिए श्रेष्ठ नागरिक बने। कर्तव्यों के निर्वहन से ही सकारात्मक समाज और भावी पीढ़ी को आदर्श व्यस्था प्रदान की जा सकती है।
स्वामी विवेकानंद नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने जिस प्रकार अपने कर्तव्य का पालन किया। उसी तरह सभी लोगों को अपने कर्तव्य का हमेशा पालन करना चाहिए।
14. गुरू वन्दन कार्यक्रम का आयोजन ।
गुरु वंदन – छात्र अभिनन्दन
गुकारस्त्वन्धकारस्तु रुकार स्तेज उच्यते।
अन्धकार निरोधत्वात् गुरुरित्यभिधीयते॥
भावार्थ : ‘गु’कार याने अंधकार, और ‘रु’कार याने तेज, जो अंधकार का (ज्ञान का प्रकाश देकर) निरोध करता है, वही गुरु कहा जाता है।
गुरु पूर्णिमा (व्यास पूर्णिमा) का महत्त्व :
आषाढ़ शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के दिन ही महाभारत काल में, एक दशराज मछुआरे की बेटी सत्यवती (मत्स्यगंधा) और ऋषि पराशर द्वारा महर्षि वेद व्यास का जन्म हुआ था। मान्यता है कि उनके जन्म पर ही गुरु पूर्णिमा जैसे महान पर्व मनाने की परम्परा को शुरू किया गया। गुरु पूर्णिमा महोत्सव पूरी तरह से महर्षि वेदव्यास को समर्पित है, जिन्होंने महाभारत, 18 पुराण, 18 उपपुराण एवं चार वेदों की रचना की। इस दिन से ऋतु परिवर्तन भी होता है। इस दिन वायु की परिक्षा करके आने वाली फसलों का अनुमान किया जाता है। आज की तिथि के उपरान्त शिव भक्ति के पावन श्रावण मास का प्रारम्भ हो रहा है। अतः शिव भक्त शिव पूजा और कावड़ यात्रा की पूर्व तैयारी करते हैं.
उपनिषद् में मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, गुरुदेवो भव कहकर गुरु का महत्व माता-पिता के तुल्य बताया है। प्राचीन काल में आध्यात्मिक एवं लौकिक ज्ञान की प्राप्ति के लिए विद्यार्थी को गुरुकुल भेजने की परम्परा से कालक्रम में इस परम्परा के लोप तक भी गुरु की महत्ता इस देश में विद्यमान है। किसी जमाने में प्रत्येक व्यक्ति का गुरु से मार्गदर्शन लेना अनिवार्य था और जो गुरुहीन होता, उसकी ‘निगुरा’ कहकर सामाजिक भर्त्सना होती थी।
भारत में गुरु-शिष्य क्षेत्रों की एक आदर्श परंपरा रही है। गुरु वंदन-छात्र अभिनंदन इसी आदर्श परमपरा के संरक्षण एवं संवर्द्धन का प्रयास है। साथ ही यह शिक्षा एवं चरित्र के गिरते स्तर को रोकने का एक माध्यम भी है। यह प्रकल्प गुरु और शिष्य के मध्य आत्मिक संतुष्टि का सृजन करता है तथा विद्यार्थियों के मध्य इस मूल्य को विकसित करता है कि गुरु के उचित मार्गदर्शन के बिना प्रगति सम्भव नहीं होती, इसलिए दूसरी ओर शिष्यों में उनके अक्षर के तीन मूल्य-शिष्टाचार, क्षमाशीलता और कर्तव्य परायणता को ग्रहण करके उनसे यह भाव प्रकट किया जाता है कि उनके ऊपर देश के दुष्ट कर्मधारों को उचित मार्गदर्शन प्रदान करने का गुरुतर उत्तरदायित्व है।
संगठन में यह कार्यक्रम विद्यालय स्तर पर मनाया जाता है, जिसमें छात्रों द्वारा अपने गुरुओं का वंदन किया जाता है, उनको साफा, शाल , पुष्प गुच्छ , श्रीफल आदि देकर उनका सम्मान किया जाता है। छात्रों में झुकाव लगाव के कारण सीखने का भाव उत्पन्न होता है।
आध्यात्मिक महत्त्व :
पुराणों में ब्रम्हा को गुरु कहा गया है क्योंकि वह जीवों का सृजन करते हैं उसी प्रकार गुरु भी अपने शिष्यों का सृजन करते हैं। इसके साथ ही पौराणिक कथाओं के अनुसार गुरु पूर्णिमा के दिन ही भगवान शिव ने सप्तिर्षियों को योग विद्या सिखायी थी, जिससे वह आदि योगी और आदिगुरु के नाम से भी जाने जाने लगे।
विद्या एवं उच्चस्तरीय ज्ञान के क्षेत्र के अतिरिक्त मानवीय चेतना को जाग्रत एवं झंकृत कर भावभरे आदर्शमय मानवीय जीवन के लिए गुरु का मार्गदर्शन एवं संरक्षण आवश्यक है। यह कार्य सद्गुरु द्वारा ही सम्पन्न होता है। आध्यात्मिक उन्नति के लिए समर्थ गुरु के शरणागत होना अनिवार्य है।
धार्मिक दृष्टि से गुरु को ब्रह्मा, विष्णु, महेश एवं परब्रह्म कहा जाता है। गुरु-शिष्य को जीवन-लक्ष्य तथा परमात्म-सृष्टि के उद्देश्य से अवगत कराता है एवं दोनों का सामंजस्य करा देता है। परमात्म-सृष्टि क्या है, उसका प्रयोजन क्या है, उस मार्ग का अनुगमन कैसे हो, यह गुरु-प्रदत्त ज्ञान से ही सम्भव है। गुरु के प्रति श्रद्धा-निष्ठा से ही शिष्य गुरु की कृपा का पात्र बनता है। शिष्य को निखारने में ही गुरु की सन्तुष्टि व आत्म-तृप्ति होती है।
पूर्णिमा के चंद्रमा की भांति जिसके जीवन में केवल प्रकाश है, वही तो अपने शिष्यों के अंत:करण में ज्ञान रूपी चंद्र की किरणें बिखेर सकता है। इस दिन हमें अपने गुरुजनों के चरणों में अपनी समस्त श्रद्धा अर्पित कर अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करनी चाहिए। गुरु कृपा असंभव को संभव बनाती है। गुरु कृपा शिष्य के हृदय में अगाध ज्ञान का संचार करती है।
योग साधक और गुरु पूर्णिमा :
पुराणों के अनुसार शिवजी ही आदिगुरु है, इसलिए गुरु पूर्णिमा के दिन उनकी पूजा अवश्य करनी चाहिए। वह शिवजी ही थे, जिन्होंने पृथ्वी पर सबसे पहले धर्म और सभ्यता का प्रचार-प्रसार किया था। यहीं कारण है कि उन्हें आदिगुरु भी कहा जाता है। उन्होंने शनिदेव और परशुरामजी जैसे महत्वपूर्ण व्यक्तियों को शिक्षा प्रदान की है।
शिव योगसाधना के भी जनक है, जिसके कारणवश उन्हें आदियोगी के नाम से भी जाना जाता है। इस योग की शिक्षा को उन्होंने सात व्यक्तियों को दिया था, आगे चलकर यही सातों व्यक्ति सप्तर्षि के नाम से प्रसिद्ध हुए। यहीं कारण है कि शिवजी को प्रथम गुरु या गुरुओं का गुरु भी माना जाता है।